आर्टिकल : बाबा-ए-क़ौम अब्दुल कय्यूम अंसारी” हर साल 1 जुलाई का दिन देश के पिछड़े समाज के लिए एक प्रेरणा का प्रतीक बनकर आता है। यह दिन अब्दुल कय्यूम अंसारी रह. का जन्मदिवस है
वह महान नेता जिनकी पहचान महज़ बिहार की राजनीति तक सीमित नहीं थी, बल्कि वे पूरे देश में सामाजिक न्याय और समावेशी राजनीति की आवाज़ थे।
उनके विचार, संघर्ष और योगदान को सिर्फ़ श्रद्धांजलि की रस्म में सीमित करना नाइंसाफ़ी होगी। ज़रूरत है उनके विज़न को ज़मीन पर उतारने की, ताकि पिछड़े समाज को उनका हक़ मिल सके।
अब्दुल कय्यूम अंसारी : परिचय की मोहताज नहीं शख्सियत :-
अब्दुल कय्यूम अंसारी रह. सिर्फ़ एक नेता नहीं थे, बल्कि वह एक आंदोलन थे। वे शायर थे, विचारक थे, लेखक थे, बेहतरीन वक्ता थे और सबसे अहम—वो एक क़ौमी रहनुमा थे जिन्होंने अपनी पूरी ज़िंदगी समाज के सबसे निचले तबक़े के लिए समर्पित कर दी।
उन्होंने ताउम्र संकीर्णता, साम्प्रदायिकता और असमानता के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी। उनका यह ऐतिहासिक स्टैंड कि वे भारत के विभाजन के खिलाफ थे, उन्हें अन्य नेताओं से अलग करता है।
उन्होंने मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग के विचारों का खुलकर विरोध किया और ‘ऑल इंडिया मोमिन कॉन्फ्रेंस’ जैसे संगठनों के माध्यम से मुस्लिम समाज के पिछड़े तबकों को एक नई पहचान दिलाई।
1950 का राष्ट्रपति आदेश: मुसलमान दलितों के साथ ऐतिहासिक नाइंसाफ़ी :-
भारत के संविधान की मूल आत्मा समानता और न्याय है, लेकिन 10 अगस्त 1950 को जारी राष्ट्रपति आदेश इसका अपवाद बन गया।
इस आदेश के तहत अनुसूचित जाति (SC) का दर्जा केवल हिंदू धर्म के दलितों को दिया गया। बाद में सिख और बौद्ध धर्म के अनुयायियों को तो इस दायरे में लाया गया, लेकिन मुसलमान और ईसाई दलित आज तक इससे वंचित हैं।
इस आदेश का सबसे बड़ा असर यह हुआ कि समाज के सबसे पिछड़े मुसलमान—जैसे मोची, सलमानी, अंसारी, धोबी, हलवाई, सफ़ाईकर्मी, मेवाती, कुरैशी, मंसूरी, गद्दी आदि—आज भी SC की सुविधाओं से वंचित हैं। यह न सिर्फ़ सामाजिक अन्याय है, बल्कि संवैधानिक समानता के अधिकार का भी सीधा उल्लंघन है।
राजनीति में पिछड़े मुसलमान: सिर्फ़ वोट बैंक :-
बिहार समेत देश की अधिकांश राजनीति में पिछड़े मुसलमानों को सिर्फ़ एक वोट बैंक के तौर पर देखा जाता है। शेख़, सैयद, पठान, ख़ान जैसे सवर्ण मुसलमान तो कहीं-कहीं नेतृत्व में दिखाई देते हैं, लेकिन अंसारी, सलमानी, कुरैशी, मंसूरी, गद्दी जैसे समाज के नीचले तबके राजनीतिक प्रतिनिधित्व से कोसों दूर हैं।राजनीतिक दल चुनाव के वक़्त अब्दुल कय्यूम अंसारी का नाम लेते हैं, लेकिन क्या सिर्फ़ उनका नाम लेना ही काफ़ी है? क्या उनकी विचारधारा, उनके एजेंडे को लागू करने की कोई योजना भी है? अगर नहीं, तो यह महज़ चुनावी दिखावा है।
क़य्यूम साहब के विचार आज भी प्रासंगिक :-
हमें सिर्फ़ अपनी क़ौम के मालदार तबक़े की नहीं बल्कि उनके ग़रीब तबक़े की भी फ़िक्र होनी चाहिए। यह बात आज के दौर में और भी प्रासंगिक हो गई है, जब मुसलमान समाज में आंतरिक असमानताएं दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही हैं। ऊपर का तबका शिक्षा, रोज़गार, और राजनीति में तो अपनी जगह बना लेता है, लेकिन नीचे का तबका वहीं का वहीं रह जाता है।
अब वक्त है नेतृत्व गढ़ने का, श्रद्धांजलि नहीं बल्कि क्रांति की जरूरत :-
2025 के विधानसभा चुनाव बिहार में होने जा रहे हैं। यह वक्त पिछड़े मुसलमानों के लिए सबसे बड़ा मौका है। सिर्फ़ भाषण, जुलूस और श्रद्धांजलि सभाएं करने से कुछ नहीं होगा। ज़रूरत है कि पिछड़े मुसलमान आबादी के अनुपात में चुनावी टिकट की माँग करें। हर पार्टी से यह स्पष्ट सवाल पूछा जाए कि:
- आप 1950 के राष्ट्रपति आदेश को हटाने की माँग का समर्थन करेंगे या नहीं?
- क्या आपके घोषणापत्र में पिछड़े मुसलमानों के लिए अलग योजनाएं होंगी?
- क्या पिछड़े मुसलमानों को उनकी संख्या के हिसाब से राजनीतिक प्रतिनिधित्व मिलेगा?
गांधी जी के प्राण रक्षक बख़्त मियाँ को मिले इंसाफ़ :-
बिहार के बग़हा क्षेत्र से आने वाले बख़्त मियाँ अंसारी ने महात्मा गांधी के प्राण बचाए थे। भारत सरकार ने उनके परिवार से ज़मीन देने का वादा किया था, जो अब तक पूरा नहीं हुआ। यह सिर्फ़ एक परिवार से किया गया अन्याय नहीं, बल्कि देश की उस ऐतिहासिक परंपरा का अपमान है जिसमें बलिदान को सर्वोच्च माना जाता है।
भारत रत्न के हक़दार हैं अब्दुल कय्यूम अंसारी :-
सरकार को चाहिए कि अब्दुल कय्यूम अंसारी को भारत रत्न से सम्मानित करे। वे इस देश के उन विरले नेताओं में थे जिन्होंने मज़हब, जाति, और भाषा से ऊपर उठकर राष्ट्रीय एकता को प्राथमिकता दी।
उनके नाम पर एक केंद्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना होनी चाहिए। उनकी जीवनी को स्कूली पाठ्यक्रमों में शामिल किया जाए और उनके नाम से सड़कें व रेलवे स्टेशन नामित किए जाएँ।
एम.डब्ल्यू. अंसारी (आई.पी.एस.)

Author: theswordofindia
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