आर्टिकल : उर्दू पे सितम ढा कर ‘गालिब’ पे करम क्यूँ है मिर्जा असदुल्ला खान गालिब, उर्दू और फारसी के अद्वितीय शायर, आज भी अपने शब्दों और विचारों के जरिए दुनिया भर में ज़िंदा हैं। उनका जन्म 27 दिसंबर 1797 को आगरा के एक मुगल परिवार में हुआ था।
गालिब की शायरी ने न केवल उर्दू और फारसी साहित्य को समृद्ध किया, बल्कि उनकी गहराई ने इंसान के जीवन, समाज और भावनाओं के सबसे सूक्ष्म पहलुओं को भी छुआ।
गालिब ने मात्र 11 साल की उम्र में शायरी करना शुरू कर दिया। उनकी कविताओं और गजलों ने उर्दू को एक नई पहचान दी। उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से न केवल अपनी भावनाओं को व्यक्त किया, बल्कि जीवन के जटिल सवालों और अनुभवों को भी शब्द दिए।
उनका मानना था कि दुनिया एक खेल का मैदान है, जहां हर इंसान अपनी ही छोटी-छोटी खुशियों और गतिविधियों में उलझा हुआ है। इस विचार को उन्होंने अपनी शायरी में इस तरह व्यक्त किया:
बाज़ीचा-ए-अत्फाल है दुनिया मेरे आगे,
होता है शब-ओ-रोज तमाशा मेरे आगे।
गालिब की शायरी की सबसे बड़ी विशेषता उनकी गहराई और शब्दों का जादू है। उन्होंने उर्दू और फारसी दोनों में रचना की, लेकिन उर्दू में लिखी उनकी गजलों ने उन्हें अद्वितीय ख्याति दिलाई। फारसी में लिखने के बावजूद, गालिब को असली पहचान उर्दू के माध्यम से मिली।
गालिब के शब्द और उनके विचार इतने प्रभावशाली थे कि आज भी उनकी शायरी पढ़ने वालों को गहराई से छू जाती है।
हालांकि, गालिब के समय से लेकर आज तक उर्दू भाषा को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है। जिस भाषा ने देश के साहित्य और संस्कृति को समृद्ध किया, उसे आज अपने ही देश में पहचान बनाए रखने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।
सरकारी और गैर-सरकारी संस्थानों द्वारा उर्दू के प्रति उदासीन रवैया, भाषा के प्रसार में बड़ी बाधा बना हुआ है। कई स्थानों पर उर्दू शब्दों के प्रयोग को कम करने या खत्म करने के आदेश जारी किए जा रहे हैं। आज उर्दू के साथ भेदभाव की नीति स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
सरकारी संस्थानों और स्कूलों में उर्दू पढ़ाने और लिखाने के लिए उचित संसाधन और शिक्षक उपलब्ध नहीं हैं। उर्दू अकादमियां, जो कभी इस भाषा के प्रसार और संरक्षण के लिए बनी थीं, आज वित्तीय सहायता की कमी और राजनीतिक स्वार्थों के कारण अपने उद्देश्य से भटक चुकी हैं। उर्दू के नाम पर होने वाले कार्यक्रमों में उर्दू की वास्तविक उपस्थिति कम होती जा रही है, और रोमन उर्दू ने उसकी जगह ले ली है।
उर्दू भाषा का प्रभाव और जादू ऐसा है कि यह अपने जन्मस्थान से बाहर भी लोगों के दिलों पर राज कर रही है। लेकिन, दुर्भाग्यवश, अपने ही देश में इसे खत्म करने की साजिशें रची जा रही हैं।
उर्दू को भारतीय संस्कृति का हिस्सा मानने और इसे बढ़ावा देने की बजाय, इसे एक विशेष समुदाय की भाषा के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।
यह रवैया न केवल भाषा के प्रति अन्याय है, बल्कि भारत की गंगा-जमनी तहज़ीब को भी कमजोर करता है। गालिब की शायरी न केवल उनकी व्यक्तिगत भावनाओं का प्रतिबिंब थी, बल्कि समाज और जीवन के गहरे पहलुओं पर भी प्रकाश डालती थी। उनके शब्दों में उनकी सादगी, गहराई और दार्शनिकता झलकती है।
उग रहा है दर-ओ-दीवार से सब्जा गालिब
हम बयाबां में हैं और घर में बहार आई है।
गालिब के शब्द आज भी हमें उर्दू भाषा की सुंदरता और महत्व की याद दिलाते हैं। उनकी कविताएं केवल शब्दों का खेल नहीं थीं, बल्कि जीवन और समाज के गहरे सत्य को व्यक्त करने का माध्यम थीं।
आज जब हम गालिब के जन्मदिन पर उन्हें याद कर रहे हैं, यह हमारा कर्तव्य बनता है कि हम उनके मिशन को आगे बढ़ाएं। उर्दू न केवल एक भाषा है, बल्कि यह भारतीय संस्कृति और विरासत का अभिन्न हिस्सा है। इसे संरक्षित और प्रचारित करना हमारी जिम्मेदारी है।
गालिब के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि हम उर्दू को उसके हक का स्थान दिलाने के लिए प्रयास करें। हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि उर्दू केवल कागजों पर न रहे, बल्कि यह जीवन के हर पहलू में जीवंत हो।
गालिब, जो उर्दू और फारसी के महान शायर थे, 15 फरवरी 1869 को इस दुनिया से विदा हो गए। लेकिन उनके शब्द, उनके विचार और उनकी भाषा आज भी हमारे साथ हैं।
उनका जीवन और उनकी रचनाएं हमें प्रेरित करती हैं कि हम न केवल उर्दू भाषा को संरक्षित करें, बल्कि इसे उसकी सही पहचान और स्थान भी दिलाएं। यही गालिब की विरासत को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

Author: theswordofindia
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